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Monday 27 June 2011

Jigar Moradabadi




नाम अली सिकंदर, तखल्लुस 'जिगर',  का जन्म ६ अप्रैल १९८० को मुरादाबाद में हुआ. खल्क इन्हें  'जिगर' मोरादाबादी के नाम से याद करती  है. इनके अब्बा मौलवी अली नज़र एक अच्छे शायर थे और ख्वाजा वजीर देहलवी के शागिर्द थे. कुछ पुश्त पहले मौलवी 'समीज़' दिल्ली के रिहाएशी थे और बादशाह शाहजहाँ के उस्ताद थे. पर शहंशाहों की तबियत कैसे बदलती है यह तो माज़ी शाहिद  है सो एक दिन शाही बर्ताब से तंग आकर दिल्ली छोड़ कर मुरादाबाद आना पड़ा और फिर यहीं बस गए.
और तकरीबन दो सदियों बाद मौलवी 'समीज' की रवानी से मुरादाबाद को आलम-ए-शायरी में एक नया मरकज़ हासिल हुआ.

शायरी जिगर को वसीयत में मिली थी.  १३-१४ साल की उम्र से शेर लिखने शुरू कर दिए. पहले पहले तो अब्बा से ही इसलाह  करवाया  करते थे बाद में ''दाग़' देहलवी को दिखया. पर इससे पहले के दाग़ इन्हें अपनी शागिर्दगी में लेते 'दाग़' का  इंतकाल हो गया. इसके बाद ये मुंशी आमिरउल्ला तस्लीम और रसा रामपुरी को अपनी ग़ज़लें दिखाते रहे.
'जिगर' के शायरी में निखार तब आया जब ये लखनऊ के पास छोटे से शहर गोंडा में आकर बस गए. यहाँ इनकी मुलाक़ात असग़र गोंडवी से हुई जो के आपे बहुत अच्छे शायर माने जाते थे. 'जिगर'  से इनका इक रूहानी रिश्ता बन गया. 'जिगर' ने असग़र को अपना अहबाब और राहबर बना लिया. नजदीकियां रिश्तों में बदल गयी. असगर गोंडवी ने अपनी साली साहिबा से 'जिगर' का निकाह करवा दिया.

पढाई कम हुई थी. कुछ दिनों तक चश्मे बेचा करते थे. शक्ल से खुदा ने वैसी नेमत नहीं बक्शी जो अल्फाजों में मिली थी. बहरहाल आवाज़ काफी बुलंद थी, मुशायरे पे छाई रहती थी.

'जिगर' को काफी बुरी लत थी, शराबनोशी की,  जिसने पारिवारिक जीवन को बसने नहीं दिया. शराब पीते थे और नशा ऐसा रहता की महीनो घर नहीं आते. खबर ही नहीं रहती की घर पे बीवी भी है. बीवी ने दुयाएँ मांगी, आयतें पढ़ी पर सब बेअसर. फिर असगर साहब ने इनका तलाक करवा दिया और अपनी गलती को सुधारने के लिए खुद अपनी साली से निकाह कर लिया. असगर साहब के इन्तेकाल के बाद 'जिगर' ने फिर मोहतरमा से निकाह किया लेकिन इस बार शराब से तौबा कर चुके थे. और ऐसा तौबा किया की दुबारा कभी हाथ नहीं लगाया. इस से बाबस्ता एक वाकया है. जब जिगर ने दफातन शराब से तौबा की तो इनके खाद-ओ-खाल से ये अज़ाब बर्दाश्त न हुआ. बीस साल की आदत एक दिन में कैसे चली जाती सो एक बड़ा नासूर इनके सीने पे निकल आया. और ऐसा ज़ख्म निकला की जान पे बन आई. डाक्टरों ने सलाह दी के दुबारा थोड़ी थोड़ी शराब पिए शायद जान बच जाए. जिगर नहीं माने पर खुदा की रहमत थी और जान बच गयी.

लेकिन यह क्या? शराब छोड़ी तो सिगरेट पे टूट पड़े. फिर यह लत छोड़ी तो ताश खेलने की ख़ुरक सवार हो गयी. खेल में इतना मशगुल हो जाते की अगर खेल के दरमियान कोई आता और जिगर साहब का इस्तकबाल करता तो ये पत्ते पे ही नजर गडाए रखते और जवाब में 'वालेकुम अस्सलाम' कहते. फिर घंटे आध घंटे बाद जब दुबारा नजर पड़ती तो कहते 'मिजाज़ कैसे है जनाब के?'. और फिर यही सवाल तब तक करते जब जब उस शक्स पे नज़र जाती.

'जिगर' साहब बहुत ही नेक इंसान थे. इनकी ज़िंदगी के चंद सर-गुजश्त बयान करूंगा जो मेरी इस बात को साबित करती हैं.

एक बार किसी हमसफ़र नें जिगर साहब का टाँगे पे बटुआ मार लिया. उन्हें पता चल गया पर चुप रहे. फिर जब किसी दोस्त ने ये बात पूछी की आपने उन्हें पकड़ा क्यूँ नहीं तो जवाब में कहते हैं की उस शख्स ने उनसे कुछ वक़्त पहले कहा था की तंगी चल रही है. टाँगे पे उन्हें पता भी चला के उनके बटुए पे हाथ डाला जा रहा है और फिर उन्होंने उस शख्स के हाथ में बटुआ देख  भी लिया. फिर भी कुछ नहीं कहा क्यूँ की 'जिगर' के मुताबिक़ अगर ये उससे पकड़ लेते तो उस शक्स को बड़ी पशेमानी उठानी पड़ती और ये उनसे देखा नहीं जाता.

ऐसा ही एक वाकया लाहौर का है. किसी मुफलिस खबातीन का लड़का गिरफ्तार हो गया था. इन खबातीन ने 'जिगर' साहब से गुहार लगायी की सिफारिश से उसके बच्चे को रिहा करवाए. 'जिगर' साहब बड़े मुज़्तरिब हो गए. अपने इक हमनफस को बताया की कुछ  करना पड़ेगा क्यूँ की वो किसी मुफलिस को रोता नहीं देख सकते. इन्हें लगता है जैसे की सैलाब आ जाएगा. इन्हों ने कमिश्नर से सिफारिश करी. फिर किसी तरह पूछते पूछते उस मोहल्ले में ये पता करने को पहुचे की लड़का घर आया की नहीं? दूर से ही शोरगुल से पता चल गया की वो रिहा हो चूका है और घर आ गया है. 'जिगर' साहब उलटे कदम लौट पड़े. इनके दोस्त ने कहा इतनी दूर आये हैं  तो मिल आये तो जिगर ने मना कर दिया. कहने लगे की मैं मिलने जाऊंगा तो वो बड़े शर्मसार  हो जायेंगे और यह अच्छी बात नहीं होगी.

ये तो थी जिगर की नेकी के किस्से. कुछ उनके खुशमिजाज़ी  के वाक्यात भी सुना दूँ.
एक बार किसी दौलतमंद कद्रदान ने 'जिगर' साहब को अपने घर पे रहने का आग्रह किया.  मक़सूद था किसी अटके हुए काम को पूरा करवाने की लिए किसी मुलाज़िम पे जिगर साहब  से सिफारिश  करवाना.  तो कुछ दिनों तक 'जिगर' साहब को खूब शराब पिलाई. पर 'जिगर' को इस शख्स की नियत का पता चल चुका  था. तो जब एक सुबह इन्हें कहा की आज किसी के  पास जा कर सिफारिश करनी है तो 'जिगर' फ़ौरन तैयार हो गए. खूब शराब पी और टाँगे  पे सवार हो गए अपने कद्रदान के साथ. फिर बीच बाज़ार में तांगा रोक कर उन्होंने चिल्ला चिल्ला कर सब को सचाई बताई. वो शक्श इतना शर्मिंदा  हुआ की घडी धडी उन्हें बैठ जाने को कहता पर जिगर ने एक न सुनी. भरे बाज़ार में फज़ीहत  निकाल दी.

एक बार किसी मुशायरे में जिगर के शेरो पे पूरी महफ़िल वाह वाह कर रही थे सिवाए एक जनाब के. जैसे ही जिगर ने अपना आखिरी शेर कहा तो ये जनाब भी रोक न पाए अपने आप को दाद देने से. यह देख कर जिगर नें इन साहब से पूछा की कलम है आपके पास. तो इन्हों न कहा क्यूँ?  जिगर बोले की शायद मेरे इस शेर में कोई कमी रह गयी है की आपने दाद दी है. इसे  मैं अपने बियाज़ से हटाना चाहता हूँ.

एक शक्स ने इक दिन जिगर से कहा की साहब इक महफ़िल में आपका शेर पढ़ा तो मैं पिटते पिटते बचा. जिगर नें कहा ज़रूर शेर में कोई कमी रह गयी होगी वरना आप ज़रूर पिटते.

ऐसे ज़िन्दादिल और नेक इन्सान थे 'जिगर' मोरादाबादी.

जिगर के कलाम की शेवा की बात करें. ग़ालिब और इकबाल के तरह इनके कलाम में फिलासुफ़  नहीं होती है. ये मीर और मोमिन की तरह इश्क और ग़म के शायर हैं. इनके लहज़ा रूमानी और सुफिआना है.  १९४० के बाद का दौर तरक्कीपसंद अदीबों का दौर था. शायर इश्क-ओ-ज़माल को कंघी-चोटी के शायरी समझने लगे. सियासती , मज़हबी और सामजिक पहलूँ पे शेर लिखे जाने लगे और शायरी से 'हुश्न', 'इश्क' , 'मैकदा', 'रिंदी' , 'साकी' गुरेज़ होने लगे. 'जिगर' साहब को ये बात पसंद न थी. वो शायरी को उसके पारासाई शक्ल में देखना चाहते थे. कहते थे:

' फ़िक्र-ए-ज़मील ख्वाब-ए-परीशां है आज कल,
 शायर नहीं है वो जो गज़ल्ख्वा  है आज कल'
नाराजगी थी इन शायरों से पर प्रोत्साहन भी बहुत देते थे. जब मजरूह सुल्तानपुरी गिरफ्तार हुए तो इन्होने कहा था, 'ये लोग गलत है या सही ये मैं नहीं जानता, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता की ये लोग अपने उसूलों के पक्के हैं. इन लोगों में खुलूस कूट कूट का भरा है. '
'जिगर' मुशायरे में बहुत चर्चित थे. इक पूरी की पूरी शायरों की ज़मात पे इनका असर पड़ा जिसमे मजाज़, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बद्युनी, साहिर लुध्यान्वी जैसी शायर थे. नए शायरों ने इनकी नक़ल की, इनके जैसी आवाज़ में शेर कहे, इनके जैसे लम्बे लम्बे बिखरे बाल रखे, ढाढ़ी बढ़ी हुई, कपडे अस्त व्यस्त और वही शराबनोशी.
'जिगर' साहब का पहला दीवान 'दाग-ए-जिगर' १९२१  में आया था. इसके बाद १९२३ में अलीगड़ मुस्लिम  उनिवर्सिटी के प्रेस से 'शोला-ए-तूर' छपी.  इनका आखिरी दीवान, 'आतिश-ए-गुल' १९५८ में प्रकाशित हुआ जिसके लिए इन्हें १९५९ में साहित्य अकादमी अवार्ड्स से भी नवाज़ा गया.

९ सितम्बर, १९६० को इस उर्दू ग़ज़ल के बादशाह का गोंडा में इंतकाल हो गया. जिगर चंद शायरों में से हैं जो अपने ही जीस्त में सफलता के मकाम को पा गए. अंजाम से पहले चंद शेर 'जिगर' साहब के मुलायेज़ा फरमाते जाएँ:

'हमको मिटा सके, ये ज़माना में दम नहीं
हमसे ज़माना खुद है, ज़माने से हम नहीं'

'मोहब्बत में 'जिगर' गुज़रे हैं ऐसे भी मकाम अक्सर
की खुद लेना पड़ा है अपने दिल से इन्तेकाम अक्सर'

'क्या हुश्न ने समझा है, क्या इश्क ने जाना है,
हम खाकनशीनों की ठोकर में ज़माना है '

'मुज़्तरिब'

Saturday 9 April 2011

hum dil ko bahlayenge aur abhii

साकी, मैखाने में आयेंगे दीवाने और अभी,
महफ़िल  में तेरी छलकेंगे पैमाने और अभी

बैठे लिए हाथों में हाथ, नज़रें होती चार चार
ऐसे गुज़रे ज़माने आयेंगे फिर से और अभी

गफलत में नहीं हूँ मैं, हक-इ-इरफ़ान है मुझे
पर इस दिल को हम बहलाएँगे और अभी
[गफलत = ignorance, हक-इ-इरफ़ान = knowledge of truth]

धुंआ उठता है  दिल से 'मुज़्तरिब' कभी कभी  
आतिश्फिशान से निकलेंगे आतिश और अभी
[आतिश्फिशान = volcano, आतिश = fire]

'मुज़्तरिब'

Saturday 29 January 2011

sukuun nahin nisaabon mein, baazaron mein

वो मकाँ नहीं है अब गली के पिछवाड़े में
पर मकीं  है  दिल के किसी  किनारे  में
[मकाँ  = house; मकीं = tenent]

कब से है  इंतज़ार उस  हमसफ़र का  
बिछड़  गया जो किसी अंधे गलियारे में

बराहमी-ए-जीस्त और ये  बे-बसारत  
कोई शम्मा जलाये इस  अंधियारे में
[बराहमी-ए-जीस्त = confusion of life; बे-बसारत= blindness]

इज़्तिराब कैसा है  ज़ेहन में 'मुज़्तरिब'
सुकूँ ना मिले निसाबों में, बाजारों में
[इज़्तिराब = restlessness; मुज़्तरिब' = restless, निसाबों = curriculam/books]

'मुज़्तरिब'  

Friday 19 November 2010

nemat-e-khlalish lage hai ishrat kee tarah

साईल हाज़तमंद है तेरे  दर पे इस तरह
नेमत-ए-खलिश लगे है इशरत की तरह
[साईल = beggar; हाज़तमंद = needy ; नेमत-ए-खलिश = gift of pain; इशरत = happiness]

बाद फ़िराक-ए-यार में तन्हाई ना मिली
गम-ए-यार मेरे साथ है साए की तरह
[बाद फ़िराक-ए-यार = after seperation from beloved]

तीरगी तेज़तर  होती जाये है शब-बा-शब
याद-ए-खूबां  है बेनुरी में उजाले की तरह
[तीरगी = darkness; तेज़तर = sharp; शब-बा-शब = night by night ; याद-ए-खूबां = memories of the beauty; बेनुरी = darkness]

आरज़ू  है की दीद-ए-यार हों फिर से
तमन्ना उन्हें भी जगे कभी हमारी तरह
[दीद-ए-यार = vision of beloved]

कब से हरीम-ए-खल्वत का मकीं हूं
जुज़ तेरे  घर लगता है तुर्बत की तरह
[जुज़ = without ;हरीम-ए-खल्वत = house of solitude; मकीं= tenant; तुर्बत =tomb/grave]

एक इलाज़ है इस रोग का मेरे चारागर
दे ज़हर  अपने हाथों से दवा की तरह
[चारागर = doctor]

दिल जो आतिश-फिशां  था  कभी  'मुज़्तरिब'
सोज़-ए-खुस्ता  सर्द  है संग-ए-बर्फ की तरह
[आतिश-फिशां = volcano; सोज़-ए-खुस्ता = extinguished heat; सर्द = cold; संग-ए-बर्फ = stone of ice]

'मुज़्तरिब'

Thursday 16 September 2010

jaan ka meri jaana na hua..

जाँ का मेरी जाना न हुआ,
अंजाम-ए-इश्क-ए-फ़साना न हुआ
[अंजाम-ए-इश्क-ए-फ़साना = end of love story]

यूँ तो फिरता हूं दर-ब-दर
पर तवाफ़-ए-कू-ए-जाना न हुआ
[तवाफ़-ए-कू-ए-जाना = circumbulation of beloved's lane ]

नम-ए-संग  हुआ है चस्म मेरा
आज फिर तेरा आना न हुआ
[नम-ए-संग = moist stone; चस्म = eyes]

हुए हैं कई कैस-ओ- फरहाद जहाँ में
'मुज़्तरिब' सा कोई दीवाना न हुआ
[कैस-ओ- फरहाद = Kaise (name of majnu) & Farhad]

'मुज़्तरिब'

Tuesday 7 September 2010

Wo walwale nahi rahi guftaari kee..

हुई थी क़रार जिनसे ताउम्र यारी की
पेशानी पे उनके शिकन है बेज़ारी की
[क़रार = pact; ताउम्र = for life, पेशानी = forehead, बेज़ारी = displeasure]

रक़्स करती थी जिंदगी इक इशारे पे
रही ना कुव्वत अब उस इख्तियारि की
[रक़्स = dance, कुव्वत = power; इख्तियारि = control]

हाल-ए-जीस्त की बयानी क्या करूँ
वो  वलवले  नही रही गुफ्तारी की
[हाल-ए-जीस्त = tale of life; बयानी = recite, वलवले = enthusiasm, गुफ्तारी = to speak]

लब पे हँसी लिए फिरते हो 'मुज़्तरिब'
बहुत जी चुके ये ज़िंदगी मुख्तारी की
[मुख्तारी = proxy]
'मुज़्तरिब'

Saturday 17 July 2010

tardeed hee sahi

तज़वीज़ मेरी गर तुझे मंज़ूर नहीं
पशेमानी मेरी पर तरदीद ही  सही
[तज़वीज़ = proposal, पशेमानी = shame, तरदीद = refutation/rejection]

दिल मुद्दई  है और खुदा मुखालिफ,
तवक्को  क्या रखे अब क्या बाकी रही
[मुद्दई= enemy, मुखालिफ = enemy,तवक्को = expectation]

कह रहा हूं फिर से आज वो बात,
बात जो ना तुमने कभी मुझसे कही

दिल-ए-गरां ना बैठ दर-ए-संग-ए-दिल पे,
कमबख्त उठ, चल चलें और कहीं
[दिल-ए-गरां = Heavy heart; दर-ए-संग-ए-दिल = Door of a stone heart; कमबख्त = unfortunate]
 
बेकसी जिसका मुक्क़दर बन गई
मैं हूँ बदनसीब 'मुज़्तरिब' वही
[बेकसी = helplessness/distress; मुक्क़दर = destiny; बदनसीब = unfortunate]
'मुज़्तरिब'

Wednesday 30 June 2010

Bukhaaraat

दूर से सराब  पास  आ रही है
कहीं से दबी हुई आवाज़ आ रही है
[सराब = illusion; ]

साँसों में गर्मी बदन में तपिश
आतिश-ए-दिल ज़बर पर आ रही है
[तपिश = heat; आतिश-ए-दिल = ambers from heart; ज़बर = above]

चस्म-ए-शम्स बरसाए शरारे    
सोज़-ओ-दूद  मेरे बदन से आ रही है
[चस्म-ए-शम्स = eyes which seem like sun, शरारे = ambers; सोज़-ओ-दूद = heat & smoke]

खर्जरों में गूंजती  हैं आवाजें
आवाजें दिल-ए-बियाँबान से आ रही है
[खर्जरों  = desolate]

 जल रहा मुज़्तरिब, बिन चिता बिन आग 
हों रहा है राख और फुगाँ आ रही है
[फुगाँ = wail]
'मुज़्तरिब'

Wednesday 23 June 2010

tamaam umr ik lamhe ka intezaar kia..

तेरी रंजिश ने दिल को तार तार किया
इश्क में हमने इसे ज़ार ज़ार किया
[तार तार = shred; ज़ार ज़ार = wail copiously]

खुशफहमी-ए-शादगी है तुझे ए खूबां
क्या जिया जो ना तुमने कभी प्यार किया
[खुशफहमी-ए-शादगी = illusion of happiness; खूबां = beautiful]

तुम ना समझ पाए ज़ज्बात-ए-मुहब्बत
यूँ तो हमने सद हजारां आशकार किया
[सद हजारां = hundred thoushand; आशकार = reveal]

लो आज हों गए हम तुम से बाबस्ता
जाँ हमने तेरे दर पे वार किया
[बाबस्ता = associated ]

ना होगा कोई मुन्तज़िर 'मुज़्तरिब' सा
तमाम उम्र एक लम्हे का इंतज़ार किया
[मुन्तज़िर = awaiting]

'मुज़्तरिब' 

Sunday 23 May 2010

jahaaz ka panchi

मर कर भी मुझको कहाँ चैन आया,
पंछी हूं जहाज़ का वापस जहाज़ पे आया

गोश-ए-मुहब्बत ना सुने तल्खियाँ ज़माने की
दर पे संगदिल के फिर से लौट कर आया
[गोश-ए-मुहब्बत = deaf love; तल्खियाँ = bitterness]

इश्क-ओ-दर्द को लफ़्ज़ों में बयाँ रखा है  
पर  ख़त भेजूं  कैसे  कासिद आज नहीं आया
[इश्क-ओ-दर्द = love and pain; कासिद = messenger]

बड़ी उम्मीद से माँगा था खुदा से मैंने तुम्हे
रुसवाई के सिवा कुछ और ना हाथ आया

तलाशती है निगाहें मेरी तुम्हें इस शहर में
दहर में मुझे बस बियांबां ही  नज़र आया
[दहर = life; बियांबां = vacuum/emptiness]

 तंग-ए-दिल से कोई जीस्त गुरेज़ हुआ है आज
इस  हादसे से 'मुज़्तरिब' तू बहुत याद आया 
[तंग-ए-दिल =  troubled heart, जीस्त गुरेज़ = escape from life]
'मुज़्तरिब'

Sunday 16 May 2010

shab-o-roz tumhari yaad aayi

शब्-ओ-रोज़ तुम्हारी  याद आयी
माह-ओ-साल तुम्हारी याद  आयी
[शब्-ओ-रोज़ = days and nights; माह-ओ-साल = months and years]

आब-ए-अब्र-ए-दैजूर में भींग कर
मुझे तुम्हारी नम आँखें याद आयी
[आब = water; अब्र = cloud; दैजूर = pitch dark; आब-ए-अब्र-ए-दैजूर =rains from dark cloud]

अटखेलती अल्हर दरिया के साहील पे
मुझे तुम्हारी पेच-ओ-ख़म बातें  याद आयी 
[दरिया = river; साहील = riverside; पेच-ओ-ख़म =  twist n turn]

नीम स्याह  रातों के साए में
मुझे तुम्हारी सर-ए-काकुल की याद आयी
[नीम स्याह = dark black; सर-ए-काकुल = curls of hair]

तिफ्ल-ए-शाद के कहकहे सुन
मुझे तुम्हारी मासूमियत  याद आयी
[तिफ्ल-ए-शाद = happy child; कहकहे = laughter]

नूर-ए-माह-ए-कामिल को देखा तो
मुझे तुम्हारी रुख-ए-रौशन  की याद आयी
[नूर = light; माह-ए-कामिल = full moon; रुख-ए-रौशन = bright face]

शम्स-ए-नीमरोज़ की ताब से
मुझे तुम्हारी सर्गारानियाँ याद आयी
[शम्स-ए-नीमरोज़ = midday sun; ताब = heat; सर्गारानियाँ = anger]

पहली बारिश की भीगी हवाओं में
मुझे तुम्हारी खद-ए-मुस्क्बार की याद आयी
[खद-ए-मुस्क्बार = body smelling like musk]

माना की है मजाज़ी ,पर 'मुज़्तरिब' को
जानेमन हर पल तुम्हारी बहुत याद आयी
[मजाज़ी = illusioned; ]
'मुज़्तरिब'

Sunday 9 May 2010

Dil mera aap hee jale jaaye hai

Prashant Dheeraj, if literally translated, means infinitely patient. With lots of hope and expectations, that I will stand true to my name, my parents chose this name for me over other names. Alas I didn’t turn out to be like that. Sadly I am the opposite of my name; I am perpetually impatient. So I thought it’s time for amendment, time to correct the mistake my parents did. I have decided to take a 'pen name' of 'Muztarib' which means impatient or agitated. Prashant 'Muztarib'; the infinitely impatient. And if it makes my makhtas more poetic then I would not mind having it even with its negative connotation. From now on I'll use my pen name in my makhtas: 'Muztarib' .

आप  ही मुज़्तरिब हुए  जाए है 
दिल मेरा यूँ ही जले  जाए है
[मुज़्तरिब = impatient]

तगाफुल तुम ना मेरी कर सकते
ये इश्क मेरा तुझे मगरूर किये जाए है
[तगाफुल = ignore; मगरूर = proud/conceited]

खामा-ए-इश्क तुम क्यूँ कहते हों  ?
जीस्त पीरी की तरफ बढे जाए है
[खामा-ए-इश्क = immature love, जीस्त = life, पीरी = old age]

ना देख रकीब को तू इस हसरत से 
ये कांटे मेरे दिल में चुभे जाए है  
[रकीब = enemy]
  
दैर की तरफ जब उठे  हैं कदम मेरे
क्यूँ रंगत तेरे चेहरे की उड़े जाए है
[दैर = temple]

वो रिवाएतें जहां की, ये शिकाएतें  तेरी
 तमाशे  'मुज़्तरिब' अब और ना देखे जाए है
[रिवाएतें = traditions]
प्रशांत  'मुज़्तरिब'