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Monday, 5 January 2009

main to mar kar bhee meri jaan tumhe chahunga ..

कल रात , पता नहीं, कितनी दफ़ा इस ग़ज़ल को मैंने सुना होगा। ये मेंहदी साहब की जादुई आवाज़ का असर था या क़तील 'शिफाई'  के दिल छु लेनी वाली लफ्जों का , पर इतना जानता हूँ की मैं पूरी तरह से इस के नशे में मदहोश हो चुका हूँ। ग़ज़ल के बोल नीचे लिखा रहा हूँ।

ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं ,
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा ।

तू मिला है तो ये एहसास हुआ है मुझको
ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोडी है ,
इक ज़रा सा गम-ए-दौराँ का भी हक़ है जिस पर
मैं ने वो साँस भी तेरे लिए रख छोडी है ,
तुझ पे हो जाउंगा क़ुर्बान तुझे चाहूँगा
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा ।

अपने जज़्बात में नगमात रचाने के लिए
मैं ने धड़कन की तरह दिल में बसाया है तुझे ,
मैं तसव्वुर भी जुदाई का भला कैसे करूँ
मैं ने क़िस्मत की लकीरों से चुराया है तुझे ,
प्यार का बन के निगेहबान तुझे चाहूँगा
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा ।

तेरी हर चाप से जलते हैं ख़यालों में चिराग
जब भी तू आए जगाता हुआ जादू आए ,
तुझको छू लूँ तो फिर ए जान-ए-तमन्ना
मुझको देर तक अपने बदन से तेरी खुश्बू आए ,
तू बहारों का है उनवान तुझे चाहुउँगा
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा ।

[कातिल 'शिफाई'  ]