जो गम-ए-हबीब से दूर थे वो खुद अपनी ही आग में जल गये,
जो गम-ए-हबीब को पा गये वो गमों से हॅश के निकल गये।
[ हबीब = Friend, beloved]
जो थके थके से थे हौसले , वो शबाब बन के मचल गये,
वो नज़र नज़र से गले मिली, तो बुझे चराग़ भी जल गये।
ये शिकस्त-ए-दीद की करवटें भी बड़ी लतीफ-ओ-जमील थी,
मैं नज़र झुका के तड़प गया , वो नज़र बचा के निकल गये
[लतीफ-ओ-जमील = amusing and beautiful]
ना खिzआं में है कोई तीरगी ना बाहर में है कोई रौशनी,
ये नज़र नज़र के चराग़ है, कहीं बुझ गये कहीं जल गये
[खिzआं = autumn, तीरगी= darkness,sadness]
जो संभल संभल के बहक गये वो फरेब खुर्द-ए-राह थे,
वो मकाम इश्क़ को पा गये जो बहक बहक के संभल गए
[खुर्द-ए-राह= lesser path]
जो खिले हुए हैं रविश रविश वो हॅज़ार हुश्न-ए-चमन सही,
मगर उन गुलों का जवाब क्या जो कदम कदम पे कुचल गये
[रविश= The narrow pathways of the garden ]
ना है शायर अब गम-ए-नौ-बा-नौ ना वो दाग-ए-दिल ना वो आरज़ू,
जिन्हे एतमाद-ए-बहार था वो ही फूल रंग बदल गये
[नौ-ब-नौ = New, Fresh, Raw एतमाद = Faith]
शायर 'लखनवी'
Maqta is that part of Ghazal where Shayar uses his thakhallus ( Sobriquet) . It is generally the last sher of the Ghazal. If I would write one for this Ghazal I would write like this:
जो गाम-ए-हयात पे संभल चले वो अंजाम-ए-मंज़िल को हुए 'प्रशांत',
मगर उन आबला-पा का क्या करें जो आगाज़-ए-राह पे फ़िसल गये
[गाम-ए-हयात = steps of life, अंजाम-ए-मंज़िल = end of destination, आबला-पा = wounded foot आगाज़-ए-राह = beginning of journey]