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Sunday, 18 September 2011

Dimaagi guhaandhakaar ka Orangutan




This poem by 'Muktibodh' is taken from his compilation 'Chand ka mooh tedha hai'

स्वप्न के भीतर एक स्वप्न,
विचारधारा के भीतर और
एक अन्य
सघन विचारधारा प्रच्छन्न !!
कथ्य के भीतर एक अनुरोधी
विर्रुद्ध विपरीत,
नेपथ्य..संगीत!!!
मस्तिष्क  के भीतर एक मस्तिष्क,
उसके भी अन्दर एक और कक्ष
कक्ष के भीतर
एक गुप्त प्रकोष्ट और
कोठे के सांवले गुहांधकार में
मज़बूत.. संदूक
दृढ, भारी भरकम
और उस संदूक के भीतर कोई बंद है
यक्ष
या की ओरंगउटांग हाय
अरे! डर यह है..
न उरांग .. उटांग कहीं छूट जाए,
कहीं प्रत्यक्ष न यक्ष हो !
करीने से सजे हुए संस्कृत.. प्रभामय
अध्ययन-गृह में
बहस उठ खड़ी जब होती है -
विवाद में हिस्सा लेता हुआ मैं
सुनता हूँ ध्यान से
अपने ही शब्दों का नाद, प्रवाह और
पाता हूँ अकस्मात्
स्वयं के स्वर में
ओरांगउटांग  की बौखलाती हुन्कृत ध्वनिया
एकाएक भयभीत
पाता हूँ पसीने से सिंचित
अपना यह नग्न मन !
हाय - हाय और न जान ले
की नग्न और विद्रूप
असत्य शक्ति का प्रतिरूप
प्राकृत ओरांग..उटांग यह
मुझमे छिपा हुआ है !

स्वयं की ग्रीवा पर
फेरता हूँ हाथ कि
करता हूँ महसूस
एकाएक गर्दन पर उगी हुई
सघन अयाल और
शब्दों पर उगे  हुए बाल तथा
वाक्यों में ओरांग..उटांग के
बढ़े  हुए नाख़ून!!

दिखती है सहसा
अपनी ही गुच्छेदार मूंछ
जो की बनती है कविता
अपने ही बड़े बड़े दांत
जो की बनते है तर्क और
दीखता है प्रत्यक्ष
बौना यह भाल और
झुका हुआ माथा
जाता हूँ चौंक मैं निज से
अपनी ही बालदार सज से
कपाल की धज से !
और, मैं विद्रूप वेदना से ग्रस्त हो
करता हूँ धड़ से बंद
वह संदूक
करता हूँ महसूस
हाथ में पिस्तौल बन्दूक !!
अगर कहीं पेटी वह खुल जाए,
ओरांगउटांग यदि उसमे से उठ पड़े,
धाएं धाएं गोली दागी जायेगी !!
रक्ताल.. फैला हुआ सब ओर
ओरांगउटांग का लाल-लाल
खून..तत्काल..
ताला लगा देता हूँ मैं पेटी का
बंद है संदूक!!

अब इस प्रकोष्ट के बाहर आ
अनेक कमरों को पार करता हुआ
संस्कृत प्रभामय अध्ययन-गृह में
अदृश्य रूप से प्रवेश कर
चली हुई बहस में भाग ले रहा हूँ!!
सोचता हूँ - विवाद से ग्रस्त कई लोग,
कई तल
सत्य के बहाने
स्वयं को चाहते हैं प्रस्थापित करना !
अहं को, तथ्य के बहाने !
मेरी जीभ एकाएक तालू से चिपकती
अक्ल क्षारयुक्त - सी होती है..
और मेरी आँखें उन बहस करने वालों के
कपड़ों में छिपी हुई
सघन रहस्यमय लम्बी पूँछ देखती !!

और मैं सोचता हूँ...
कैसे सत्य हैं...
ढांक रखना चाहते हैं बड़े बड़े
नाख़ून !!
किसके लिए हैं वे बाघनख !!
कौन अभागा वह !!

गजानन माधव 'मुक्तिबोध'
I have tried translating this poem below:

Organgutan in the darkness of a mind

Dream concealed in a dream
Thought concealed in
another
deep and clandestine thought !!
Story within a requesting
opposite antonymous,
offstage..music !!
Mind within a mind
And within that a chamber
And another chamber within that
And within the chamber
A secret vestibule and
And in the pitch darkness of the chamber
A strong Trunk
Heavy and steadfast
And something is in the trunk
Probably a Demi god
Or an Orangutan
Oh!! The fear is…
That orangutan may get freed
Or the demi god may get revealed!

In A beautifully decorated, civilized and lightened study room
a debate gets sparked
And I, participating in the debate
carefully listen to
The sound and flow of my words
And suddenly
I find in my voice
The agitated grunt of the Orangutan
And afraid
I find drenched In sweat
My naked mind !
Oh! No one should know
That naked and ugly,
The manifestation of untruth
This physical Orangutan
Is hiding in me!!

When on the back of my neck
I caress my hand
I feel
Suddenly the grown
Thick mane
And In words, the hair,
And in my sentences, Orangutans’
Big nails!

And I see
The thick moustache
Which becomes a poem
And my big sharp teeth
Which becomes my arguments and
I can see clearly
The dwarf bear and
head down
And I get startled by myself
By my hairy look
And by my temple
And, I engulfed by ugly pain
Close down firmly with a thud
the trunk
And feel
A pistol in my hand !!
If the trunk gets open,
And if the Orangutan gets out
Bang, Bang I’ll fire !!!
Pool of blood…spread across
Organgutan’s red
Blood..fresh..
I put a lock and
the trunk is locked !!
I come out of this vestibule
Crossing many rooms
I enter the civilized lighted study room
Invisibly, I get in
And participate in the ongoing debate!!
And I think – debate struck people,
In many layers
In the name of truth
Try to establish themselves!
And to establish  there ego, in the garb of fact!!
My tongue suddenly gets stuck to palate
Mind gets soured..
And my eyes, in those debaters’
Cloths, see hidden
Thick, secretive & long mustache!!
And I think…
What type of truth are these..
Trying to conceal big
Nails!!
For whom are those tiger claws!!
Who is the unfortunate!!!

Gajanan Madhav 'Muktibodh'



Sunday, 13 June 2010

aaj main gaya to laut ke phir na aaonga

आज  मैं गया
तो लौट के फिर ना आऊंगा

ये  आँखें ना रोक पायेंगी
ये आंसूं  ना रोक पायेंगे
तेरी बातें ना रोक पाएंगी
तेरी कसमें ना रोक पायेंगे
आज मैं गया
तो लौट के फिर ना आऊंगा

तेरी हंसी मैं भूल जाऊँगा
सारी ख़ुशी  मैं भूल जाऊँगा
सारे वादे मैं भूल जाऊँगा
सब इरादे मैं भूल जाऊँगा
आज मैं गया
तो लौट के फिर ना आऊंगा

अधजगी रातें मैं छोड़ जाऊँगा 
अनकही बातें मैं छोड़ जाऊँगा
अधूरी मुलाकातें मैं छोड़ जाऊँगा
अतृप्त ज़ज्बातें मैं छोड़ जाऊँगा
आज मैं गया
तो लौट के फिर ना आऊँगा

आधी रातो में  किसे जगाओगी
  वेवजह किसे सताओगी
कौन देखेगा राह तुम्हारी
किसे अपने किस्से सुनाओगी

रूठोगी, तो कौन तुम्हे मनायेगा
कौन अपने हाथों से खिलायेगा
कौन तुम्हे सब बातें समझायेगा
कौन तुम्हारे सपनो को अपना बनायेगा

फिर ये आँखें भर आयेंगी
और खर्जारों  से टकराएंगी
नज़र बार बार दरवाजे तक जायेंगी
पर मुझको ना ढूंढ पायेंगी

 अपने लिए ही सही
 रोक लो मुझको तुम आज, की
आज मैं गया
तो लौट के फिर ना आऊंगा 

'प्रशांत'

Saturday, 16 January 2010

Wo saal jo ab guzar gaya

I wanted to post this poem on 31st of 2009 but couldn't do that. Better late than never. My adios to 2009.

टूट के लम्हा बिखर गया
पल पल दिन में सिमट गया
दिन रात मे मिल के ओझल हुआ
और ऐसे ही माह निकल गया
सब चले गये हैं साथ उसके
जो साल अभी गुज़र गया


एक तारा था जो टूट गया
कोई प्यारा था वो रूठ गया
एक आस थी जो बिखर गयी
और साथ किस का छूट गया
सब चले गये है साथ उसके
जो साल अभी गुज़र गया


दे कर मुझको अल्फ़ाज़ गया
उलफत मुझ पे वो वार गया
सपनो को दे कर आकार गया
एक नई उर्जा को संचार गया
नये साल का तोहफा देकर
एक साल था जो अब गुज़र गया

[ अल्फ़ाज़ = words; उलफत =love]

'प्रशांत'

Thursday, 1 January 2009

Ode to Hope..Welcome 2009 :)


कल की रात का गिला क्या?
नये साल में, आओ गुज़रें हुए पलों से आस चुरायें,
गमों को माज़ी में डुबाकर, नये पलों से नई सुबहा बनाये,
हाथों को थाम कर नई राह पे, हमसफर बन जायें
फिर से रूठे और मनायें, आओ थोडा सा रूमानी हो जायें…
'प्रशांत'
[Maqta is inspired from Gulzaar saab's lyrics from the film by same name]

Saturday, 27 September 2008

Kesariya

Maid to princess on seeing her distraught:

"मन्दिर माँ सुंदर खड़ी, खड़ी सुखावे केश,
जिनके आँगन केवडा , वो क्यूँ मैला भेष ?"

( Standing in the temple in scroching heat,O beautiful, just to dry your hairs,
for those having kewda in their backyard are not supposed to be slovenly.)

Princess replies nonchalantly:
"आग लगो इस केवडे को,अरे जलो बूझो यह केश
जिस माली का केवडा, वो माली परदेश "
" केसरिया बालम, आओ रे,पधारो म्हारे देश ।"

( Let the Kewda be on fire, and put the hairs to burn,
for the one to whom this Kewda (indicating herself) belongs is not here.
O beloved, come back, come back to me)

This verse is taken from Rajasthani folk song 'Kesariya Balam, Padharo mhaare desh'. The english translation is not word by word but just an attempt to capture the emotion.

Thursday, 25 September 2008

एक धुन्धल्की शाम

एक धुँधल्की शाम,
मद्धम मद्धम साँस,
बोझिल सर, धुआं धुआं,
और दो मुन्तजिर आँख

ऐ मजहर-ए-ग़ज़ल,

आज तुम आओगी ,
अपने साथ मशर्रत लाओगी ,
और इस तीरगी में अपना जमाल फैलाओगी

पर तुम नहीं आई,

तुम्हारा पैगाम आया,
आज भी नही आओगी यह कहलाया,

कल का वादा कर के मुझ को बहलाया

आज फिर वही धुँधल्की शाम,

मद्धम मद्धम साँस,
बोझिल सर, धुआं धुआं,
और दो बुझी सी आँख




ऐ मजहर-ए-ग़ज़ल,
पर कल तुम आना ,
अपने साथ मशर्रत लाना,

और इस तीरगी में अपना जमाल फैलाना




प्रशांत
[मुन्तजिर = awaiting, मजहर-ए-ग़ज़ल = manifestation of Gazal, मशर्रत = happiness,
तीरगी = darkness, जमाल = Beauty]