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Friday, 23 October 2009

Fikr hee tehri tou dil ko fikr-e-khubaan kyun na ho?

फ़िक्र ही ठहरी तो दिल को फ़िक्र-ए-खूबां क्यूँ न हों ?
ख़ाक होना है तो ख़ाक-ए-कू-ए-जाना क्यूँ न हों ?
[फ़िक्र = tension/stress, खूबां = beautiful/Beloved , ख़ाक = annihiliate, कू-ए-जाना = lane of beloved ]

जीस्त है जब मुस्तकिल आवारागर्दी ही का नाम,
अक्ल वालों फिर तवाफ़-ए- कू-ए-जाना क्यूँ न हों ?
[मुस्तकिल  = continuous, तवाफ़ = greeting of sacred/Circumbulation]

इक  न  इक  रीफत के आगे सजदा लाजिम है तो फिर
आदमी महव-ए-सजूद-ए-सिर-ए-खूबां क्यूँ न हों ?
[रीफत = loftiness/peak ; सजदा = prostrate/prayer, महव = drown/immerse सजूद = prostrate ]

इक न इक ज़ुल्मत से जब बाबस्ता रहना है तो  'जोश'
जिन्दगी पर साया-ए-जुल्फ-ए-परीशान क्यूँ न हों ?
' जोश  मलीहाबाद'

Appending my makhta to it.
शब्-ओ-रोज़ की तल्खियों  से जब मुज्महिल रहना है 'प्रशांत'
जिंदगी फिर ज़ेर-ए-पा-ए-जाना  क्यूँ न हों ?
[शब्-ओ-रोज़ = night and day, तल्खियों = bitterness, मुज्महिल = distressed/disappointed, ज़ेर-ए-पा-ए-जाना = beneath the beloved's feet]