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Saturday 9 July 2011

muddat mein wo phir taza mulaakaat ka aalam



muddat mein vo phir taazaa mulaaqaat kaa aalam
Khaamosh adaaon mein vo jazbaat kaa aalam

allaah re vo shiddat-e-jazbaat kaa aalam
kuchh kah ke vo bhuulii hui har baat kaa aalam

nazron se wo masoom muhabbat ke tarawish
chehre pe wo mash look khalayat ka aalam

tere aariz se Dhalakate hue shabanam ke vo qatare
aaNkhon se jhalakataa huaa barasaat kaa aalam

vo nazaro.n hii nazaro.n me.n savaalaat kii duniyaa
vo aa.Nkho.n hii aa.Nkho.n me.n javaabaat kaa aalam

wo arsh se tabar baraste hue anvaar
wo tohmatt-e arz-o-samawaatt ka aalam

wo aariz-e- purnoor, wo kaif-e-nigaah shauq
jaise ke dam-e-soz munaazaat ka aalam

aalam meri nazaron mein jigar aur hee kutch hai
aalam hai agarche wahi din raat ka aalam

Jigar Moradabaadi


मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम
खामोश अदाओं में वो जज़्बात का आलम

अल्लाह रे वो शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
कुछ कह के वो भूली हुई हर बात का आलम

नज़रों से वो मासूम मुहब्बत की तराविश
चेहरे पे वो मुशलूक ख़यालात का आलम

तेरे आरीज़ से ढलकते हुए शबनम के वो कतरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम

वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम

वो अर्श से तबार बरसते हुए अनवार
वो तोहमत्त-ए अर्ज़-ओ-समावात का आलम

वो आरीज़-ए-पूरणूर, वो कैफ़-ए-निगाह शौक़
जैसे के दम-ए-सोज़ मुनाज़ात का आलम

आलम मेरी नज़रों में जिगर और ही कुछ है
आलम है अगरचे वही दिन रात का आलम

जिगर मोरादाबादी

Monday 27 June 2011

Jigar Moradabadi




नाम अली सिकंदर, तखल्लुस 'जिगर',  का जन्म ६ अप्रैल १९८० को मुरादाबाद में हुआ. खल्क इन्हें  'जिगर' मोरादाबादी के नाम से याद करती  है. इनके अब्बा मौलवी अली नज़र एक अच्छे शायर थे और ख्वाजा वजीर देहलवी के शागिर्द थे. कुछ पुश्त पहले मौलवी 'समीज़' दिल्ली के रिहाएशी थे और बादशाह शाहजहाँ के उस्ताद थे. पर शहंशाहों की तबियत कैसे बदलती है यह तो माज़ी शाहिद  है सो एक दिन शाही बर्ताब से तंग आकर दिल्ली छोड़ कर मुरादाबाद आना पड़ा और फिर यहीं बस गए.
और तकरीबन दो सदियों बाद मौलवी 'समीज' की रवानी से मुरादाबाद को आलम-ए-शायरी में एक नया मरकज़ हासिल हुआ.

शायरी जिगर को वसीयत में मिली थी.  १३-१४ साल की उम्र से शेर लिखने शुरू कर दिए. पहले पहले तो अब्बा से ही इसलाह  करवाया  करते थे बाद में ''दाग़' देहलवी को दिखया. पर इससे पहले के दाग़ इन्हें अपनी शागिर्दगी में लेते 'दाग़' का  इंतकाल हो गया. इसके बाद ये मुंशी आमिरउल्ला तस्लीम और रसा रामपुरी को अपनी ग़ज़लें दिखाते रहे.
'जिगर' के शायरी में निखार तब आया जब ये लखनऊ के पास छोटे से शहर गोंडा में आकर बस गए. यहाँ इनकी मुलाक़ात असग़र गोंडवी से हुई जो के आपे बहुत अच्छे शायर माने जाते थे. 'जिगर'  से इनका इक रूहानी रिश्ता बन गया. 'जिगर' ने असग़र को अपना अहबाब और राहबर बना लिया. नजदीकियां रिश्तों में बदल गयी. असगर गोंडवी ने अपनी साली साहिबा से 'जिगर' का निकाह करवा दिया.

पढाई कम हुई थी. कुछ दिनों तक चश्मे बेचा करते थे. शक्ल से खुदा ने वैसी नेमत नहीं बक्शी जो अल्फाजों में मिली थी. बहरहाल आवाज़ काफी बुलंद थी, मुशायरे पे छाई रहती थी.

'जिगर' को काफी बुरी लत थी, शराबनोशी की,  जिसने पारिवारिक जीवन को बसने नहीं दिया. शराब पीते थे और नशा ऐसा रहता की महीनो घर नहीं आते. खबर ही नहीं रहती की घर पे बीवी भी है. बीवी ने दुयाएँ मांगी, आयतें पढ़ी पर सब बेअसर. फिर असगर साहब ने इनका तलाक करवा दिया और अपनी गलती को सुधारने के लिए खुद अपनी साली से निकाह कर लिया. असगर साहब के इन्तेकाल के बाद 'जिगर' ने फिर मोहतरमा से निकाह किया लेकिन इस बार शराब से तौबा कर चुके थे. और ऐसा तौबा किया की दुबारा कभी हाथ नहीं लगाया. इस से बाबस्ता एक वाकया है. जब जिगर ने दफातन शराब से तौबा की तो इनके खाद-ओ-खाल से ये अज़ाब बर्दाश्त न हुआ. बीस साल की आदत एक दिन में कैसे चली जाती सो एक बड़ा नासूर इनके सीने पे निकल आया. और ऐसा ज़ख्म निकला की जान पे बन आई. डाक्टरों ने सलाह दी के दुबारा थोड़ी थोड़ी शराब पिए शायद जान बच जाए. जिगर नहीं माने पर खुदा की रहमत थी और जान बच गयी.

लेकिन यह क्या? शराब छोड़ी तो सिगरेट पे टूट पड़े. फिर यह लत छोड़ी तो ताश खेलने की ख़ुरक सवार हो गयी. खेल में इतना मशगुल हो जाते की अगर खेल के दरमियान कोई आता और जिगर साहब का इस्तकबाल करता तो ये पत्ते पे ही नजर गडाए रखते और जवाब में 'वालेकुम अस्सलाम' कहते. फिर घंटे आध घंटे बाद जब दुबारा नजर पड़ती तो कहते 'मिजाज़ कैसे है जनाब के?'. और फिर यही सवाल तब तक करते जब जब उस शक्स पे नज़र जाती.

'जिगर' साहब बहुत ही नेक इंसान थे. इनकी ज़िंदगी के चंद सर-गुजश्त बयान करूंगा जो मेरी इस बात को साबित करती हैं.

एक बार किसी हमसफ़र नें जिगर साहब का टाँगे पे बटुआ मार लिया. उन्हें पता चल गया पर चुप रहे. फिर जब किसी दोस्त ने ये बात पूछी की आपने उन्हें पकड़ा क्यूँ नहीं तो जवाब में कहते हैं की उस शख्स ने उनसे कुछ वक़्त पहले कहा था की तंगी चल रही है. टाँगे पे उन्हें पता भी चला के उनके बटुए पे हाथ डाला जा रहा है और फिर उन्होंने उस शख्स के हाथ में बटुआ देख  भी लिया. फिर भी कुछ नहीं कहा क्यूँ की 'जिगर' के मुताबिक़ अगर ये उससे पकड़ लेते तो उस शक्स को बड़ी पशेमानी उठानी पड़ती और ये उनसे देखा नहीं जाता.

ऐसा ही एक वाकया लाहौर का है. किसी मुफलिस खबातीन का लड़का गिरफ्तार हो गया था. इन खबातीन ने 'जिगर' साहब से गुहार लगायी की सिफारिश से उसके बच्चे को रिहा करवाए. 'जिगर' साहब बड़े मुज़्तरिब हो गए. अपने इक हमनफस को बताया की कुछ  करना पड़ेगा क्यूँ की वो किसी मुफलिस को रोता नहीं देख सकते. इन्हें लगता है जैसे की सैलाब आ जाएगा. इन्हों ने कमिश्नर से सिफारिश करी. फिर किसी तरह पूछते पूछते उस मोहल्ले में ये पता करने को पहुचे की लड़का घर आया की नहीं? दूर से ही शोरगुल से पता चल गया की वो रिहा हो चूका है और घर आ गया है. 'जिगर' साहब उलटे कदम लौट पड़े. इनके दोस्त ने कहा इतनी दूर आये हैं  तो मिल आये तो जिगर ने मना कर दिया. कहने लगे की मैं मिलने जाऊंगा तो वो बड़े शर्मसार  हो जायेंगे और यह अच्छी बात नहीं होगी.

ये तो थी जिगर की नेकी के किस्से. कुछ उनके खुशमिजाज़ी  के वाक्यात भी सुना दूँ.
एक बार किसी दौलतमंद कद्रदान ने 'जिगर' साहब को अपने घर पे रहने का आग्रह किया.  मक़सूद था किसी अटके हुए काम को पूरा करवाने की लिए किसी मुलाज़िम पे जिगर साहब  से सिफारिश  करवाना.  तो कुछ दिनों तक 'जिगर' साहब को खूब शराब पिलाई. पर 'जिगर' को इस शख्स की नियत का पता चल चुका  था. तो जब एक सुबह इन्हें कहा की आज किसी के  पास जा कर सिफारिश करनी है तो 'जिगर' फ़ौरन तैयार हो गए. खूब शराब पी और टाँगे  पे सवार हो गए अपने कद्रदान के साथ. फिर बीच बाज़ार में तांगा रोक कर उन्होंने चिल्ला चिल्ला कर सब को सचाई बताई. वो शक्श इतना शर्मिंदा  हुआ की घडी धडी उन्हें बैठ जाने को कहता पर जिगर ने एक न सुनी. भरे बाज़ार में फज़ीहत  निकाल दी.

एक बार किसी मुशायरे में जिगर के शेरो पे पूरी महफ़िल वाह वाह कर रही थे सिवाए एक जनाब के. जैसे ही जिगर ने अपना आखिरी शेर कहा तो ये जनाब भी रोक न पाए अपने आप को दाद देने से. यह देख कर जिगर नें इन साहब से पूछा की कलम है आपके पास. तो इन्हों न कहा क्यूँ?  जिगर बोले की शायद मेरे इस शेर में कोई कमी रह गयी है की आपने दाद दी है. इसे  मैं अपने बियाज़ से हटाना चाहता हूँ.

एक शक्स ने इक दिन जिगर से कहा की साहब इक महफ़िल में आपका शेर पढ़ा तो मैं पिटते पिटते बचा. जिगर नें कहा ज़रूर शेर में कोई कमी रह गयी होगी वरना आप ज़रूर पिटते.

ऐसे ज़िन्दादिल और नेक इन्सान थे 'जिगर' मोरादाबादी.

जिगर के कलाम की शेवा की बात करें. ग़ालिब और इकबाल के तरह इनके कलाम में फिलासुफ़  नहीं होती है. ये मीर और मोमिन की तरह इश्क और ग़म के शायर हैं. इनके लहज़ा रूमानी और सुफिआना है.  १९४० के बाद का दौर तरक्कीपसंद अदीबों का दौर था. शायर इश्क-ओ-ज़माल को कंघी-चोटी के शायरी समझने लगे. सियासती , मज़हबी और सामजिक पहलूँ पे शेर लिखे जाने लगे और शायरी से 'हुश्न', 'इश्क' , 'मैकदा', 'रिंदी' , 'साकी' गुरेज़ होने लगे. 'जिगर' साहब को ये बात पसंद न थी. वो शायरी को उसके पारासाई शक्ल में देखना चाहते थे. कहते थे:

' फ़िक्र-ए-ज़मील ख्वाब-ए-परीशां है आज कल,
 शायर नहीं है वो जो गज़ल्ख्वा  है आज कल'
नाराजगी थी इन शायरों से पर प्रोत्साहन भी बहुत देते थे. जब मजरूह सुल्तानपुरी गिरफ्तार हुए तो इन्होने कहा था, 'ये लोग गलत है या सही ये मैं नहीं जानता, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता की ये लोग अपने उसूलों के पक्के हैं. इन लोगों में खुलूस कूट कूट का भरा है. '
'जिगर' मुशायरे में बहुत चर्चित थे. इक पूरी की पूरी शायरों की ज़मात पे इनका असर पड़ा जिसमे मजाज़, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बद्युनी, साहिर लुध्यान्वी जैसी शायर थे. नए शायरों ने इनकी नक़ल की, इनके जैसी आवाज़ में शेर कहे, इनके जैसे लम्बे लम्बे बिखरे बाल रखे, ढाढ़ी बढ़ी हुई, कपडे अस्त व्यस्त और वही शराबनोशी.
'जिगर' साहब का पहला दीवान 'दाग-ए-जिगर' १९२१  में आया था. इसके बाद १९२३ में अलीगड़ मुस्लिम  उनिवर्सिटी के प्रेस से 'शोला-ए-तूर' छपी.  इनका आखिरी दीवान, 'आतिश-ए-गुल' १९५८ में प्रकाशित हुआ जिसके लिए इन्हें १९५९ में साहित्य अकादमी अवार्ड्स से भी नवाज़ा गया.

९ सितम्बर, १९६० को इस उर्दू ग़ज़ल के बादशाह का गोंडा में इंतकाल हो गया. जिगर चंद शायरों में से हैं जो अपने ही जीस्त में सफलता के मकाम को पा गए. अंजाम से पहले चंद शेर 'जिगर' साहब के मुलायेज़ा फरमाते जाएँ:

'हमको मिटा सके, ये ज़माना में दम नहीं
हमसे ज़माना खुद है, ज़माने से हम नहीं'

'मोहब्बत में 'जिगर' गुज़रे हैं ऐसे भी मकाम अक्सर
की खुद लेना पड़ा है अपने दिल से इन्तेकाम अक्सर'

'क्या हुश्न ने समझा है, क्या इश्क ने जाना है,
हम खाकनशीनों की ठोकर में ज़माना है '

'मुज़्तरिब'

Saturday 18 June 2011

Agarche Zor hawaon ne daal raka hai..



अगरचे ज़ोर हवाओं नें डाल रखा है
मगर चराग ने लौ को संभाल रखा है
[अगरचे = although]

اگرچے زور ہواؤں نے ڈال رکھا ہے
مگر چارگ نے  دل  کو  سمبھال  رکھا  ہے 

भले दिनों का भरोसा ही क्या रहे न रहे
सो मैंने रिश्ता-ए-गम को बहाल रखा है

بھلے  دنو  کا  بھروسہ  ہی  کیا  رہے  نہ  رہے
سو  مہینے  رشتہ ا گم  کو  بھال  رکھا  ہے 

मोहब्बत में तो मिलना है या उजड़ जाना
मिज़ाज-ए-इश्क में कब येत्दाल रखा है
[मिज़ाज-ए-इश्क = Love's temprament, येत्दाल = moderation ]

موحبّت  میں  تو  ملنا  ہے  یا  پھر  بچھاد  جانا
مزاج ا عشق  میں کب  اعتدال  رکھا  ہے

हवा में नशा ही नशा फ़ज़ा में रंग ही रंग
यह किसने पैराहन अपना उछाल रखा है
[पैराहन = cloth]

ہوا میں  نشہ  ہی  نشہ  فضا  میں  رنگ  ہی  رنگ
یہ  کسنے  پیراہن  اپنا  اچھال  رکھا  ہے

भरी बहार में इक शाख पे खिला है गुलाब
के जैसे तुने हथेली पे गाल रखा है

بھری  بہار  میں  اک  شاخ  پی  کھلا  ہے  گلاب 
کی  جیسے  تونے  ہتھیلی  پی  گال  رکھا  ہے 

हम ऐसे सादादिलों को, वो दोस्त हो की खुदा
सभी ने वादा-ए-फर्दा पे टाल रखा है
[सादादिलों = simpleton]

ہم  ایسے  ساددلوں  کو ، وو دوست  ہو کے  خدا
سبھی  نے  وادا ا فردا  پی تال  رکھا  ہے

"फ़राज़" इश्क की दुनिया तो खूबसूरत थी
ये किसने फितना-ए-हिज्र-ओ-विसाल रखा है
[फितना-ए-हिज्र-ओ-विसाल = mischeif of meeting and seperation]

अहमद ' फ़राज़'

فراز عشق  کی  دنیا  تو  خوبصورت  تھے
یہ  کسنے  فتنہ ا حضر و وصال  رکھا ہے

احمد فراز
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Adding my own makhta to it

नातवां-ए-दिल पे इक बोझ है गिरां सा
'मुज़्तरिब' ने गम को तेरे शिद्दत से संभाल रखा है
[नातवां-ए-दिल = weak heart, गिरां = heavy, शिद्दत = strenght]

ناتواں-ا--دل پی اک بوجھ ہے گراں سا
'مضطرب' نے گم کو تیرے شدّت سے سمبھال رکھا ہے
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agarche zor hawaaon ne daal rakha hai
magar chiragh ne lau ko sambhaal rakha hai

bhalay dino ka bharosa hi kya rahe na rahen
so maine rishta-e-gham ko bahaal rakha hai
mohabbaton mein to milna hai ya ujad jaana
mizaaj-e-ishq mein kab e`tadaal rakha hai

hawaa mein nasha hi nasha, fazaa meiN rang hi rang
yeh kis ne pairahan apna uchhaal rakha hai

bhari bahaar meiN ik shaakh par khila hai gulaab
keh jaise tu ne hatheli pe gaal rakha hai

hum aise saada diloN ko woh dost ho ke khuda
sabhi ne waada-e-fardaa pe Taal rakha hai

"faraaz" ishq ki duniya to khoobsurat thi
yeh kis ne fitna-e-hijr-o-wisaal rakha hai

Ahmed Faraz
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Adding my makhta to this ghazal :

naatvan-e-dil pe ik bojh hai giraan sa
'Muztarib' ne teri gam ko shiddat se sambhal rakha hai
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I have tried at rough translation of this Ghazal in english. It goes as


Although the wind is putting up a blow
The lamp has kept up the flame's flow

Good days might not be there always
So I have preserved my relations with sorrow

In love either one meets or get annihilated
Moderation is not the nature of Love

Intoxication in air and colures in weather
Who has put up her cloths in open?

In the spring time, a rose blossomed at the twig
Feels like you have put your cheeks in my hands

To simpleton such as us, be it God or friends,
All have procrastinated their promises for tomorrow

O "Faraz', realm of love was beautiful
who has come up with mischief of meeting and separation

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On this weak heart there is a heavy burden
‘Muztarib’ is enduring with your grief
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Tuesday 14 June 2011

kutch nisaan umr ke raftaar se lag jaate hain..



रोग ऐसे भी गम-ए-यार से लग जाते हैं
दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं
[दर = door, गम-ए-यार = sorrow of beloved]

इश्क आगाज़ में हलकी से खलिश रखता है
बाद में सैकड़ों आज़ार से लग जाते हैं
[आगाज़ = start, खलिश / आज़ार  = pain ]

पहले पहले हवास की  इक-आध दूकान खुलती है
फिर तो बाज़ार के बाज़ार से लग जाते हैं

बेबसी भी कभी कुर्बत का सबब होती है
रोना चाहे तो गले यार से लग जाते हैं
[कुर्बत = love; सबब = reason]

दाग़  दामन के हों, दिल के हों या चेहरे के 'फ़राज़'
कुछ निशां उम्र के रफ़्तार से लग जाते हैं

अहमद 'फ़राज़'

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Adding my own makhta to it

यूँ हुआ बेकस रुख 'मुज़्तरिब'  इश्क में उसके, की  
हमदर्दी में रकीब भी गले प्यार से लग जाते हैं
[बेकस रुख = sad faced , रकीब = enemy]
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rog aise bhee gam-e-yaar se lag jaate hain
dar se uathte hain to deewar se lag jaate hain

ishq aagaz mein halki se khalish rakhta hai
baad mein saikdon aazar lag jaate hain

pehle pehl hawas ke ik aadh dukaan khulti hia
phir bazzar ke baazar se lag jaate hain

bebasi bhee kabhi kurbat ka sabab hoti hai
rona chahein to gale yaar ke lag jaate hain

daag daaman ke hon, dil ke ya chehre ke 'Faraaz'
kutch nisaan umr kee raftaar se lag jaate hain

'Faraz'
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yun hua bekas rukh 'muztarib' ishq mein uske, ki
humdardi mein rakeeb bhee gale pyar se lag jaate hain
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Interview of Faiz Ahmad Faiz

Putting up a gem, an interview of Faiz saab and his wife Alys Faiz. In this clip Ahmad 'Faraz' is seated along with 'Faiz' saab. This year we are celebrating his birth centenary.

Sunday 12 June 2011

aankh se duur na ho dil se utar jaayega..



आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा

इतना मानूस न हो खिलवत-ए-गम से अपनी
तू अगर खुद को भी देखेगा तो दर जाएगा
[मानूस =intimate; खिलवत-ए-गम=sorrow of loneliness]


तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम-ए-रफ़ाक़त से उतर जाएगा
[सर-ए-राह-ए-वफ़ा=path of love; बाम-ए-रफ़ाक़त=responsibility towards love]


ज़िन्दगी तेरी अता थी तो ये जानेवाला
तेरी बक्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जाएगा
[अता=gift; बक्शीश=donation; दहलीज़ =doorstep]


डूबते डूबते कश्ती को उछाला दे दूँ
मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जाएगा

ज़ब्त लाजिम है मगर दुःख है क़यामत का फ़राज़
जालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जाएगा

अहमद 'फ़राज़'

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Adding my makhta to this

मुज़्तरिब चलो फिर कू-ए-कातिल की तरफ
गर ज़िंदगी उस गली में नहीं तो कहाँ  जाएगा
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aa.Nkh se duur na ho dil se utar jaayegaa
vaqt kaa kyaa hai guzarataa hai guzar jaayegaa


itanaa maanuus na ho Khilvat-e-Gam se apanii
tuu kabhii Khud ko bhii dekhegaa to Dar jaayegaa


tum sar-e-raah-e-vafaa dekhate rah jaaoge
aur vo baam-e-rafaaqat se utar jaayegaa


zindagii terii ataa hai to ye jaanevaalaa
terii baKhshiish terii dahaliiz pe dhar jaayegaa

Duubate Duubate kashtii to ochhaalaa de duun
mai.n nahii.n ko_ii to saahil pe utar jaayegaa

zabt laazim hai magar dukh hai qayaamat kaa 'Faraz'
zaalim ab ke bhii na royegaa to mar jaayegaa

Saturday 11 June 2011

Is se pehle kee hum bewafa ho jaye



इस से पहले की बेवफा हो जाए
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाए

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाए ?

हम भी मजबूरियों का उज्र करे
और कहीं और मुब्तल्ला हो जाए
[उज्र = excuse/hesitation; मुब्तल्ला = suffering]

इश्क भी खेल है नसीबों का
ख़ाक हो जाएँ किमीयाँ हो जाए
[किमीयाँ = alchemy/to convert from copper to gold]

अब के गर तू मिले की हम तुझसे
ऐसे लिपटे की तेरी कबा हो जाए
[कबा = blouse]

बंदगी हमने छोड़ दी है 'फ़राज़'
क्या करे जब लोग खुदा हो जाए

अहमद 'फ़राज़'

Iss se pehle kee bewafa ho jaaye
Kyun na ye dost hum juda ho jaaye

Tu bhee here se ban gaya patthar
Hum bhee kal jaane kya kya se kya ho jaaye

Hum bhee mazbooriyon ka uzr kare
Aur kahin aur mubtalla ho jaye

Ishq bhee khel hai naseebon ka
Khaak ho jaayege kimeeyan ho jaaye

Ab ke gar tu mile kee hum tujhse
Aise lipte kee teri kaba ho jaye

Bandgee humne chodd dee hai faraz
Kya kare log jab khuda ho jaaye

Friday 13 May 2011

chaap tilak sab chhini

Adding few dohas and a Ghazal by Amir Khusrow, sung by Habib Wali Muhammad



लकड़ी जल कोयला भई
और कोयला जल भयो राख
मैं पापन ऐसे जली
न कोयला भई न राख


Lakdi jal koyla bhai
Aur koyla jal bhayo raakh
Main papan aisi jail
So koyla bhai na raakh

(wood burns and becomes charcoal
Charcoal burns and becomes ash
I, sinner, am burning
But becoming Neither charcoal nor ash)


आजा साजन नैनं में
पलक ढांक तोहे लूं
ना मैं देखूं गैर को
ना मैं तोहे देखन दूँ
Aaja saajan nainan mein
Palak daankh tohe loon
Na main dekhon aur ko
Na tohe dekhan doon

(O dear, please be in my eyes
I will hide you with my eyelids
Neither will I see other
Nor will I let you to see them)


सजन सकारे जायेंगे
और नैन मरेंगे रोई
बिध ना ऐसी रैन है
भोर कभू ना होय

Sajan sakare jayenge
Aur nain marenge roi
Bidh na aisi rain hai
Bhor kabhu na hoi

 
(Beloved will go in the morning
And my eyes will die of crying
Let this night become such
So that dawn never comes)


मरने के बाद भी मेरी आँखें खुली रही
आदत पड़ी हुई है इन्हें इंतज़ार की
सो कागा सब तन खयियो और चुन चुन खइयो मांस
ये दो नैना मत खयियो इन्हें पिया मिलन की आस

Marne ke baad bhee mere aankhe khuli rahi
Aadat padi hui hai inhe intezaar ke
So kaaga sab tan khaiyo Aur chun chun khaiyo maans
Ye do naina mat kahiyo inhe piya Milan ke aas


(After death, my eyes were open As they were used of waiting
So O Raven, feast on my flesh But leave my eyes
As they are hopeful of meeting my beloved)


गोरी सोये सेज पे
 मुह पे दारे केश
चल खुसरो घर आपनो
रैन भई चहु देश

Gori soye sej pe
Aur Much pe dare kesh
Chal khusrow ghar aapno
Rain bhai chu desh


Khusorw said this doha after Khwaja Moinudiin  Chisti's death

(My beloved is sleeping on mat,
and tresses covering his face
O Khusrow, go home
There is darkness all around)
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छाप तिलक सब छिनी मोसे नैना मिलाइके, बतियाँ सब कह दिनी मोसे नैना मिलाइके
प्रेम भाटी का मधवा पिलायिके,  मतवारी कर दिनी मोसे नैना मिलाइके
गोरी गोरी बैयाँ हरी हरी चूड़ियाँ, बैयाँ पकड़ धर लीनी मोसे नैना मिलाइके
बल बल जाऊं मैं तोरे रंगरेजवा अपनी सी कर लीनी मोसे नैना मिलाइके
खुसरो निजाम के बल बल जयें मोहे सुहागन किनी मोसे नैना मिलाइके


Chaap tilak sab chinni re mose naina milike, Baatiyan sab keh dini mose naina millike
Prem bhati ka madhwa piliye ke, Matwari kar dini mose naina milike
Gori gori baiyan hari hari chudiyan, Baiyan pakad dhar lini mose naina milike.
Bal bal jaaon mein toray rang rajwa , Apni see kar leeni ray mosay naina milaikay
Khusrow nizam ke wal wal jaiyein, mohe suhaagan kini mose naina milike


(I lost all my fineries by just a glance of his, I let out all my secrets by just a glance of his
I drank the wine of his love-potion, I am intoxicated by just a glance of his;
My fair wrists with green bangles, Have been held tightly by just a glance of his;
I give my life to the dyer, who have dyed me as himself, by just a glance of his;
I give my whole life to Nijam, who has made me bride by just a glance of his)

Amir Khusrow

Friday 6 May 2011

इक नज़्म इक ग़ज़ल 'फैज़' की



iss waqt to yun lagta hai kahin kutch bhee nahin hai

इस वक़्त तो यूँ लगता है कहीं कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज न अँधेरा न सवेरा
आँखों के दरीचों  में किसी हुस्न की चिलमन
और दिल की पनाहों  में किसी दर्द का डेरा
शाखों में ख्यालों की घनी पेड़ की शायद
अब आके करेगा न कोई ख़ाब बसेरा
शायद वो  कोई वहम था मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी  चाप का इक आखिरी फेरा
अब बैर न उल्फत  न रब्त न रिश्ता
अपना कोई तेरा न पराया कोई मेरा
माना की ये सुनसान घडी सख्त घडी है
लेकिन मेरे दिल यह तो फकत एक घडी है
हिम्मत करो जीने  को अभी उम्र पड़ी है

[महताब = moon, चिलमन = veil; उल्फत = love, रब्त = dearness/closeness; फकत = mere ]

फैज़ अहमद 'फैज़'

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nahin nigaah mein manzil to justjuu he sahi

नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मुयस्सर तो आरजू ही सही
[ जुस्तजू = desire, विसाल = meeting; मुयस्सर = possible ]


न तन में खून फराहम न अश्क आँखों में
नवाज़-ए-शौक़ तो वाजिब है बे-वज़ू ही सही
[ फराहम = gathered at one place, अश्क = tears; नवाज़-ए-शौक़ = prayer; बे-वज़ू = without abulation ]

किसी तरह तो जमे बज़्म मैकदों वालों
नहीं जो बादा-ओ-सागर तो हां-ओ-हू ही सही
[बज़्म = gaterhing; मैकदों वालो = winers;बादा-ओ-सागर = wine and wine holder; हां-ओ-हू = encore]


है इंतज़ार कठिन तो जब तलक ये दिल
किसी के वादा-ए-फर्दा की गुफ्तगू ही सही
[वादा-ए-फर्दा = promise for tommorow; गुफ्तगू = conversation]


दयार-ए-गैर में  मरहम अगर नहीं कोई
तो 'फैज़' ज़िक्र-ए-वतन अपने रू-बा-रू ही सही
[दायर-ए-गैर = alien land; ज़िक्र-ए-वतन = mention of homeland;रू-बा-रू = face to face]

फैज़ अहमद 'फैज़'

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Monday 2 May 2011

Ab ke Tajdeed-e-wafa ka nahin imkaan jaana

  

अब के तजदीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानां
याद क्या तुझ को दिलाये तेरा पैमां जानां
[तजदीद-ए-वफ़ा = renewal of love/loyalty; इम्काँ = possibility; पैमां = promise]

यूं ही मौसम की अदा देख के याद आया है
किस कदर जल्द बदल जाते हैं इंसां जानां

ज़िंदगी तेरी अता थी तो तेरे नाम की है
हम ने जैसे भी बसर की तेरा एह्साँ जानां

दिल यह कहता है की शायद हो फ़सुर्दा तू भी
दिल की क्या बात करें दिल तो है नादां जानां
[फ़सुर्दा = sad]

अवल अवल की मुहब्बत के नशे याद तो कर
बेपिये भी तेरा चेहरा था गुलिस्तान जानां
[अवल अवल = first/ early]

आखिर आखिर तो ये आलम है की अब होश नहीं
रग-ए-मीना सुलग उठी की रग-ए-जां जानां
[रग-ए-मीना = viens of wineholder;]

मुद्दतों से ये आलम न तवक्को न उम्मीद
दिल पुकारे हे चला जाता है जानां जानां
[तवक्को = expectation]

हम भी क्या सादा थे हम ने भी समझ रखा था
गम-ए-दौरां से जुदा है गम-ए-जां जानां
[गम-ए-दौरां = sorrows of world; गम-ए-जां = sorrows of life]

अब के कुछ ऐसी सजी महफ़िल-ए-यारां जानां
सर-बा-जानू है कोई सर-बा-गिरेबां जानां
[सर-बा-जानू = head on knees; सर-बा-गिरेबां = head on neck]

हर कोई अपनी ही आवाज़ से काँप उठता है
हर कोई अपने ही साए से है हैराँ जानां

जिसको देखो वही ज़ंजीर-बा-पा लगता है
शहर का शहर हुआ दाखिल-ए-ज़िन्दां जाना
[ज़ंजीर-बा-पा = feet in chain; दाखिल-ए-ज़िन्दां = in jail]

अब तेरा ज़िक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आये
और से और हुआ दर्द का उन्वाँ जानां
[उन्वाँ = start of book]

हम की रूठी हुई रुत को भी मना लेते थे
हम ने देखा ही नहीं था मौसम-ए-हिज्राँ जानां
[मौसम-ए-हिज्राँ = season of separation]

होश आये तो सभी ख़्वाब थे रेज़ा रेज़ा
जैसे उड़ते हुए औराक़-ए-परेशां जानां
[रेज़ा = torn; औराक़-ए-परेशां = strewn pages of a book]

अहमद 'फ़राज़'

Adding my makhta to this

वस्ल मुमकिन नहीं  है अपना जानां
'मुज़्तरिब' चिराग-ए-नातवाँ   है और तू तूफां जानां
[वस्ल  = meeting ; चिराग-ए-नातवाँ  = flickering lamp, तूफां = storm]

Sunday 1 May 2011

दो गजलें ' फ़राज़' की...

Putting down two famous gazals of Faraaz saab and attached is the video with his enigmatic rendition


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Usne sukkut-e-shab mein bhee

उसने सुकूत-ए-शब् में भी अपना पैआम रख दिया
हिज्र की रात बाम पे माह-ए-तमाम रख दिया
[सुकूत-ए-शब् = silence of night; पैआम = message; हिज्र = seperation; बाम = terrace; माह-ए-तमाम = full moon]

आमद-ए-दोस्त की नवीद कू-ए-वफ़ा में आम थी
मैंने भी चिराग सा दिल सर-ए-शाम रख दिया
[आमद-ए-दोस्त = friend's arrival ; नवीद = good news; कू-ए-वफ़ा = lanes of loyalty; सर-ए-शाम  = as evening approaches ]

देखो ये मेरे ख़ाव थे देखो ये मेरे ज़ख्म हैं
मैंने तो सब हिसाब-ए-जां बर-सर-ए-आम रख दिया
[हिसाब-ए-जां = ledger of beloved; सर-ए-आम = in public]

उसने नज़र नज़र में ही ऐसे भले सुखन कहे
मैंने तो उसके पांव में सारा कलाम रख दिया
[सुखन = words; कलाम = oeuvre]

शिद्दत-ए-तिश्नगी में भी गैरत-ए-मयकशी  रही
उसने जो फेर ली नज़र मैंने भी जाम रख दिया
[शिद्दत-ए-तिश्नगी = desire of wine; गैरत-ए-मयकशी = respect for rules of wining]

और 'फ़राज़' चाहिए कितनी मुहबतें तुझे
की माओं ने तेरे नाम पर बच्चों  का नाम रख दिया

अहमद ' फ़राज़'

Adding my Makhta to it

उसकी इक निगाह पे रकीबों ने रखी है बाज़ी
दाव पे मुज़्तरिब  ने दिल-ओ-जां रख दिया  

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Suna hai log use aankh bhar ke dekhte hain


सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर  में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उसको ख़राब-हालों से
सो अपने आप को बर्बाद कर के देखते हैं
[रब्त = affinity/closeness; ख़राब-हालों = wretched]

सुना है दर्द की गाहक है चस्म-ए-नाज़ुक उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं
[गाहक = buyer; चस्म-ए-नाज़ुक = tender eyes ]

सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोइज़े अपने हुनर के देखते हैं
[शगफ़ = passion; मोइज़े = magic]

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फलक से उतर के देखते हैं

सूना है हश्र  है उसकी गजाल सी आँखें
सुना है उसको हिरन दश्तभर के देखते हैं
[हश्र = judgement day; गजाल = deer; दश्तभर = whole jungle]

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनूं ठहर के देखते हैं

सुना है रात से बढ़ कर है काकुलें उसकी
सुना है शाम को शाये गुज़र के देखते हैं
[काकुलें = tresses]

सूना है उस की स्याह चस्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आँख भर के देखते हैं
[स्याह चस्मगी = dark eyes; सुरमाफ़रोश = kohl seller ]

सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पे इलज़ाम धर के देखते हैं

सुना है आइना तमसाल है ज़बीं उसका
जो सादादिल हैं बन संवर के देखते हैं
[तमसाल = like; ज़बीं = forehead; सादादिल = pure hearted ]

सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है
की फूल अपनी कबायें क़तर के देखते हैं
[कबायें = clothes/blouse]

बस इक निगाह से लुटता है आइना दिल का
सो रह-रवां-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं
[रह-रवां-ए-तमन्ना = traveller's desire]

सूना है उसके सबिस्तां से मुतास्सिल है बहिस्त
मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं
[सबिस्तां = bedroom; मुतास्सिल = near/close; बहिस्त = heaven; मकीं = tenent]

रुके तो गर्दिशें उसको तवाफ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं
[गर्दिशें = circle/passage esp of time; तवाफ = circumbulation ]

किसे नसीब के बे-पैराहन उसे देखे
कभी कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं
[बे-पैराहन = without clothes; दर-ओ-दीवार = doors and walls]

कहानियाँ से सही सब मुबालगे ही सही
अगर वो खाब है तो ताबीर कर के देखते हैं
[मुबालगे = beyond imagination; खाब = dream; ताबीर = interpretation ]

अब उसके शहर में ठहरे की कूच कर जाएँ
'फ़राज़' आओ सितारे सफ़र के देखते हैं

अहमद 'फ़राज़'

Adding my own makhta to it

सुना है अकीदत है उसको सबातवालों का
'मुज़्तरिब' आओ फिर सब्र कर के देखते हैं
[अकीदत = respect/prefrence; सबातवालों = one who has patience; 'मुज़्तरिब' = restless; सब्र = patience]

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Sunday 10 April 2011

Saare jahan se accha

तराना-ए-हिंद

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं उसकी ये गुलसितां हमारा

ग़ुरबत में हो अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वही हमें भी दिल हो जहाँ हमारा
[ग़ुरबत = in alien land/exile]

पर्वत वो सबसे उंचा हमसाया आसमां का
वो संतरी हमारा वो पासबां हमारा
[संतरी = sentry, पासबां = guard ]

गोदी में खेलती हैं जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिसके दम से रस्क-ए-जिनां हमारा
[रस्क-ए-जिनां = envy of  heaven]

ऐ आब-ए-रौद-ए-गंगा ! वो दिन हैं याद तुझको
उतरा तेरे किनारे जब कारवां हमारा
[आब-ए-रोद-ए-गंगा = flowing water of ganges]

मज़हब  नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दुस्तां हमारा

यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाकी नाम-ओ-निशाँ हमारा

कुछ बात है की हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा

इकबाल ! कोई मरहम अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहां हमारा
[मरहम = balm/sympathiser; दर्द-ए-निहां = hidden pain]

अल्लामा 'इकबाल'

Adding two shers of mine to this beautiful ghazal


बहर-ए-अरब-ओ-बंग-ओ-हिंद करता है वजू जिसका
वो सादिक जमीं हमारी वो पावन देश हमारा
[बहर-ए-अरब-ओ-बंग-ओ-हिंद = Arab and Bengal and India Ocean, वजू = abulation; सादिक = pure ]

फैजी है 'मुज़्तरिब' जो पैदा हुआ यहाँ पे
यहीं जन्नत हमारी यहीं काबा हमारा
 [फैजी = blessed, ]


Putting below is a rough translation of this:

Song of Hind

the best in whole world is my hindustaan
we are its nightingale and this garden is our home

even in exile our heart is at home
and we are there where our heart is

the loftiest of the mountains, the friend of sky
is our sentry, is our guard

thoushand of river plays in her bosom
our garden is an envy to the heaven

O flowing water of Ganges! did you recall the day
when our caravan had landed at your shore

religion doesnt teach animosity amongst kins
we all are Hindi and our nation is Hindustaan

Greeks, Coptics and Romans have become history
but we still have name and existence

there is something which keeps us going
despite many in world being our foes for centuries

Iqbaal there is no sympathiser to us
does anyone know our hidden pain ?

'Iqbaal'

Saturday 9 April 2011

hum dil ko bahlayenge aur abhii

साकी, मैखाने में आयेंगे दीवाने और अभी,
महफ़िल  में तेरी छलकेंगे पैमाने और अभी

बैठे लिए हाथों में हाथ, नज़रें होती चार चार
ऐसे गुज़रे ज़माने आयेंगे फिर से और अभी

गफलत में नहीं हूँ मैं, हक-इ-इरफ़ान है मुझे
पर इस दिल को हम बहलाएँगे और अभी
[गफलत = ignorance, हक-इ-इरफ़ान = knowledge of truth]

धुंआ उठता है  दिल से 'मुज़्तरिब' कभी कभी  
आतिश्फिशान से निकलेंगे आतिश और अभी
[आतिश्फिशान = volcano, आतिश = fire]

'मुज़्तरिब'

Saturday 29 January 2011

sukuun nahin nisaabon mein, baazaron mein

वो मकाँ नहीं है अब गली के पिछवाड़े में
पर मकीं  है  दिल के किसी  किनारे  में
[मकाँ  = house; मकीं = tenent]

कब से है  इंतज़ार उस  हमसफ़र का  
बिछड़  गया जो किसी अंधे गलियारे में

बराहमी-ए-जीस्त और ये  बे-बसारत  
कोई शम्मा जलाये इस  अंधियारे में
[बराहमी-ए-जीस्त = confusion of life; बे-बसारत= blindness]

इज़्तिराब कैसा है  ज़ेहन में 'मुज़्तरिब'
सुकूँ ना मिले निसाबों में, बाजारों में
[इज़्तिराब = restlessness; मुज़्तरिब' = restless, निसाबों = curriculam/books]

'मुज़्तरिब'  

Thursday 27 January 2011

jashn-e-saal girah

इक मजमा-ए-रंगीं में वह घबराई हुई सी
बैठी है अजब नाज़ से शर्माई हुई सी
आँखों में हया लब पे हंसी आयीं हुई सी

लहरें सी वह लेता हुआ इक  फूल सा सेहरा
सेहरे में झमकता हुआ इक चाँद सा चेहरा
इक रंग सा रुख पे कभी हल्का कभी गेहरा

सरशार निगाहों में हया झूम रही है
हैं रक्स में अफ़लाक ज़मीं घूम रही है
शायर की वफ़ा बढ़ के कदम चूम रही है
[सरशार  = tippled/intoxcication; रक्स = dance; अफ़लाक = heavenly bodies]

ये तू की तेरे दम से मिरी जमजमा ख्वानी
हों तुझको मुबारक यह तिरी नूर-जहानी
अफ़कार से महफूज़ रहे तेरी जवानी
[जमजमा  = poetry/couplets; नूर-जहानी  = light of world]; अफ़कार = worries; महफूज़ = secure ]
छलके तेरी आँखों से शराब और ज्यादा
महके तेरी आरिज़ के गुलाब और ज़यादा
अल्लाह करे जोर-ए-शबाब और ज़यादा
[आरिज़ = cheeks; जोर-ए-शबाब = power of beauty]
मजाज़ 'लखनवी' *

* Majaz 'Lakhnawai' is considered to be the 'Keats' of Urdu poetry. He was born in in 1911 in the small town of Radauli in the erstwhile Awadh as Asraar ul Haq. He died in 1955 at the tender age of 44. I have tried the lieteral translation of above nazm:

In the gathering she is unquite
sitting with graceful poise and diffidence
with shyness in her eyes and smile on her lips

Her veneer of flower is flowing like waves
and behind the veil is the moon face
at times luminous at times faint

shyness floating in those intoxciating eyes
heaven and earth are swaying to her dance
and the poet feels like kissing her feet

you are the inspiration of my poetry
you are the light of this world
may your youth बे concealed from worries

let your eyes drip more wine
your pink cheeks scent more rosy
may god make you more beautiful.