नाम अली सिकंदर, तखल्लुस 'जिगर', का जन्म ६ अप्रैल १९८० को मुरादाबाद में हुआ. खल्क इन्हें 'जिगर' मोरादाबादी के नाम से याद करती है. इनके अब्बा मौलवी अली नज़र एक अच्छे शायर थे और ख्वाजा वजीर देहलवी के शागिर्द थे. कुछ पुश्त पहले मौलवी 'समीज़' दिल्ली के रिहाएशी थे और बादशाह शाहजहाँ के उस्ताद थे. पर शहंशाहों की तबियत कैसे बदलती है यह तो माज़ी शाहिद है सो एक दिन शाही बर्ताब से तंग आकर दिल्ली छोड़ कर मुरादाबाद आना पड़ा और फिर यहीं बस गए.
और तकरीबन दो सदियों बाद मौलवी 'समीज' की रवानी से मुरादाबाद को आलम-ए-शायरी में एक नया मरकज़ हासिल हुआ.
शायरी जिगर को वसीयत में मिली थी. १३-१४ साल की उम्र से शेर लिखने शुरू कर दिए. पहले पहले तो अब्बा से ही इसलाह करवाया करते थे बाद में ''दाग़' देहलवी को दिखया. पर इससे पहले के दाग़ इन्हें अपनी शागिर्दगी में लेते 'दाग़' का इंतकाल हो गया. इसके बाद ये मुंशी आमिरउल्ला तस्लीम और रसा रामपुरी को अपनी ग़ज़लें दिखाते रहे.
'जिगर' के शायरी में निखार तब आया जब ये लखनऊ के पास छोटे से शहर गोंडा में आकर बस गए. यहाँ इनकी मुलाक़ात असग़र गोंडवी से हुई जो के आपे बहुत अच्छे शायर माने जाते थे. 'जिगर' से इनका इक रूहानी रिश्ता बन गया. 'जिगर' ने असग़र को अपना अहबाब और राहबर बना लिया. नजदीकियां रिश्तों में बदल गयी. असगर गोंडवी ने अपनी साली साहिबा से 'जिगर' का निकाह करवा दिया.
पढाई कम हुई थी. कुछ दिनों तक चश्मे बेचा करते थे. शक्ल से खुदा ने वैसी नेमत नहीं बक्शी जो अल्फाजों में मिली थी. बहरहाल आवाज़ काफी बुलंद थी, मुशायरे पे छाई रहती थी.
पढाई कम हुई थी. कुछ दिनों तक चश्मे बेचा करते थे. शक्ल से खुदा ने वैसी नेमत नहीं बक्शी जो अल्फाजों में मिली थी. बहरहाल आवाज़ काफी बुलंद थी, मुशायरे पे छाई रहती थी.
'जिगर' को काफी बुरी लत थी, शराबनोशी की, जिसने पारिवारिक जीवन को बसने नहीं दिया. शराब पीते थे और नशा ऐसा रहता की महीनो घर नहीं आते. खबर ही नहीं रहती की घर पे बीवी भी है. बीवी ने दुयाएँ मांगी, आयतें पढ़ी पर सब बेअसर. फिर असगर साहब ने इनका तलाक करवा दिया और अपनी गलती को सुधारने के लिए खुद अपनी साली से निकाह कर लिया. असगर साहब के इन्तेकाल के बाद 'जिगर' ने फिर मोहतरमा से निकाह किया लेकिन इस बार शराब से तौबा कर चुके थे. और ऐसा तौबा किया की दुबारा कभी हाथ नहीं लगाया. इस से बाबस्ता एक वाकया है. जब जिगर ने दफातन शराब से तौबा की तो इनके खाद-ओ-खाल से ये अज़ाब बर्दाश्त न हुआ. बीस साल की आदत एक दिन में कैसे चली जाती सो एक बड़ा नासूर इनके सीने पे निकल आया. और ऐसा ज़ख्म निकला की जान पे बन आई. डाक्टरों ने सलाह दी के दुबारा थोड़ी थोड़ी शराब पिए शायद जान बच जाए. जिगर नहीं माने पर खुदा की रहमत थी और जान बच गयी.
लेकिन यह क्या? शराब छोड़ी तो सिगरेट पे टूट पड़े. फिर यह लत छोड़ी तो ताश खेलने की ख़ुरक सवार हो गयी. खेल में इतना मशगुल हो जाते की अगर खेल के दरमियान कोई आता और जिगर साहब का इस्तकबाल करता तो ये पत्ते पे ही नजर गडाए रखते और जवाब में 'वालेकुम अस्सलाम' कहते. फिर घंटे आध घंटे बाद जब दुबारा नजर पड़ती तो कहते 'मिजाज़ कैसे है जनाब के?'. और फिर यही सवाल तब तक करते जब जब उस शक्स पे नज़र जाती.
'जिगर' साहब बहुत ही नेक इंसान थे. इनकी ज़िंदगी के चंद सर-गुजश्त बयान करूंगा जो मेरी इस बात को साबित करती हैं.
एक बार किसी हमसफ़र नें जिगर साहब का टाँगे पे बटुआ मार लिया. उन्हें पता चल गया पर चुप रहे. फिर जब किसी दोस्त ने ये बात पूछी की आपने उन्हें पकड़ा क्यूँ नहीं तो जवाब में कहते हैं की उस शख्स ने उनसे कुछ वक़्त पहले कहा था की तंगी चल रही है. टाँगे पे उन्हें पता भी चला के उनके बटुए पे हाथ डाला जा रहा है और फिर उन्होंने उस शख्स के हाथ में बटुआ देख भी लिया. फिर भी कुछ नहीं कहा क्यूँ की 'जिगर' के मुताबिक़ अगर ये उससे पकड़ लेते तो उस शक्स को बड़ी पशेमानी उठानी पड़ती और ये उनसे देखा नहीं जाता.
ऐसा ही एक वाकया लाहौर का है. किसी मुफलिस खबातीन का लड़का गिरफ्तार हो गया था. इन खबातीन ने 'जिगर' साहब से गुहार लगायी की सिफारिश से उसके बच्चे को रिहा करवाए. 'जिगर' साहब बड़े मुज़्तरिब हो गए. अपने इक हमनफस को बताया की कुछ करना पड़ेगा क्यूँ की वो किसी मुफलिस को रोता नहीं देख सकते. इन्हें लगता है जैसे की सैलाब आ जाएगा. इन्हों ने कमिश्नर से सिफारिश करी. फिर किसी तरह पूछते पूछते उस मोहल्ले में ये पता करने को पहुचे की लड़का घर आया की नहीं? दूर से ही शोरगुल से पता चल गया की वो रिहा हो चूका है और घर आ गया है. 'जिगर' साहब उलटे कदम लौट पड़े. इनके दोस्त ने कहा इतनी दूर आये हैं तो मिल आये तो जिगर ने मना कर दिया. कहने लगे की मैं मिलने जाऊंगा तो वो बड़े शर्मसार हो जायेंगे और यह अच्छी बात नहीं होगी.
ये तो थी जिगर की नेकी के किस्से. कुछ उनके खुशमिजाज़ी के वाक्यात भी सुना दूँ.
एक बार किसी दौलतमंद कद्रदान ने 'जिगर' साहब को अपने घर पे रहने का आग्रह किया. मक़सूद था किसी अटके हुए काम को पूरा करवाने की लिए किसी मुलाज़िम पे जिगर साहब से सिफारिश करवाना. तो कुछ दिनों तक 'जिगर' साहब को खूब शराब पिलाई. पर 'जिगर' को इस शख्स की नियत का पता चल चुका था. तो जब एक सुबह इन्हें कहा की आज किसी के पास जा कर सिफारिश करनी है तो 'जिगर' फ़ौरन तैयार हो गए. खूब शराब पी और टाँगे पे सवार हो गए अपने कद्रदान के साथ. फिर बीच बाज़ार में तांगा रोक कर उन्होंने चिल्ला चिल्ला कर सब को सचाई बताई. वो शक्श इतना शर्मिंदा हुआ की घडी धडी उन्हें बैठ जाने को कहता पर जिगर ने एक न सुनी. भरे बाज़ार में फज़ीहत निकाल दी.
एक बार किसी मुशायरे में जिगर के शेरो पे पूरी महफ़िल वाह वाह कर रही थे सिवाए एक जनाब के. जैसे ही जिगर ने अपना आखिरी शेर कहा तो ये जनाब भी रोक न पाए अपने आप को दाद देने से. यह देख कर जिगर नें इन साहब से पूछा की कलम है आपके पास. तो इन्हों न कहा क्यूँ? जिगर बोले की शायद मेरे इस शेर में कोई कमी रह गयी है की आपने दाद दी है. इसे मैं अपने बियाज़ से हटाना चाहता हूँ.
एक शक्स ने इक दिन जिगर से कहा की साहब इक महफ़िल में आपका शेर पढ़ा तो मैं पिटते पिटते बचा. जिगर नें कहा ज़रूर शेर में कोई कमी रह गयी होगी वरना आप ज़रूर पिटते.
ऐसे ज़िन्दादिल और नेक इन्सान थे 'जिगर' मोरादाबादी.
जिगर के कलाम की शेवा की बात करें. ग़ालिब और इकबाल के तरह इनके कलाम में फिलासुफ़ नहीं होती है. ये मीर और मोमिन की तरह इश्क और ग़म के शायर हैं. इनके लहज़ा रूमानी और सुफिआना है. १९४० के बाद का दौर तरक्कीपसंद अदीबों का दौर था. शायर इश्क-ओ-ज़माल को कंघी-चोटी के शायरी समझने लगे. सियासती , मज़हबी और सामजिक पहलूँ पे शेर लिखे जाने लगे और शायरी से 'हुश्न', 'इश्क' , 'मैकदा', 'रिंदी' , 'साकी' गुरेज़ होने लगे. 'जिगर' साहब को ये बात पसंद न थी. वो शायरी को उसके पारासाई शक्ल में देखना चाहते थे. कहते थे:
' फ़िक्र-ए-ज़मील ख्वाब-ए-परीशां है आज कल,
शायर नहीं है वो जो गज़ल्ख्वा है आज कल'
नाराजगी थी इन शायरों से पर प्रोत्साहन भी बहुत देते थे. जब मजरूह सुल्तानपुरी गिरफ्तार हुए तो इन्होने कहा था, 'ये लोग गलत है या सही ये मैं नहीं जानता, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता की ये लोग अपने उसूलों के पक्के हैं. इन लोगों में खुलूस कूट कूट का भरा है. ''जिगर' मुशायरे में बहुत चर्चित थे. इक पूरी की पूरी शायरों की ज़मात पे इनका असर पड़ा जिसमे मजाज़, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बद्युनी, साहिर लुध्यान्वी जैसी शायर थे. नए शायरों ने इनकी नक़ल की, इनके जैसी आवाज़ में शेर कहे, इनके जैसे लम्बे लम्बे बिखरे बाल रखे, ढाढ़ी बढ़ी हुई, कपडे अस्त व्यस्त और वही शराबनोशी.
'जिगर' साहब का पहला दीवान 'दाग-ए-जिगर' १९२१ में आया था. इसके बाद १९२३ में अलीगड़ मुस्लिम उनिवर्सिटी के प्रेस से 'शोला-ए-तूर' छपी. इनका आखिरी दीवान, 'आतिश-ए-गुल' १९५८ में प्रकाशित हुआ जिसके लिए इन्हें १९५९ में साहित्य अकादमी अवार्ड्स से भी नवाज़ा गया.
९ सितम्बर, १९६० को इस उर्दू ग़ज़ल के बादशाह का गोंडा में इंतकाल हो गया. जिगर चंद शायरों में से हैं जो अपने ही जीस्त में सफलता के मकाम को पा गए. अंजाम से पहले चंद शेर 'जिगर' साहब के मुलायेज़ा फरमाते जाएँ:
'हमको मिटा सके, ये ज़माना में दम नहीं
हमसे ज़माना खुद है, ज़माने से हम नहीं'
'मोहब्बत में 'जिगर' गुज़रे हैं ऐसे भी मकाम अक्सर
की खुद लेना पड़ा है अपने दिल से इन्तेकाम अक्सर'
'क्या हुश्न ने समझा है, क्या इश्क ने जाना है,
हम खाकनशीनों की ठोकर में ज़माना है '
'मुज़्तरिब'
1 comment:
This was an interesting post. It is difficult to keep personality and an artistic work separate.
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