ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि बक्शा गया जिनको ज़ौक-ए-गदाई
ज़माने की फटकार सरमाया इनका
जहाँ भर की दुत्कार इनकी कमाई
न आराम शब् को न राहत सवेरे
गज़ालत में घर, नालियों में बसेरे
जो बिगड़े तो इक दुसरे से लड़ा दो
ज़रा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरे खाने वाले
ये फ़ाकों से उकता के मर जाने वाले
ये मजलूम मखलूक गर सर उठाये
तो इंसां सब सरकशी भूल जाए
ये चाहे तो दुनिया को अपना बना लें
ये आकाओं के हड्डियाँ तक चबा लें
कोई इनको एह्शाह-ए-ज़िल्लत दिला दे
कोई इनकी सोई हुई दम हिला दे
फैज़ अहमद 'फैज़'
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