I am not sure about the first two shers but the rest is by Ahmad 'Faraz'. This ghazal is beautifully sung by Gulaam Ali.
न उड़ा यूँ ठोकरों से मेरी ख़ाक-ए-कब्र ज़ालिम,
यही एक राह गयी है मेरे प्यार की निशानी
कभी इल्तिफात-ए-पैहम कभी मुझसे बदगुमानी
तेरी वो भी मेहरबानी तेरी ये भी मेहरबानी
[इल्तिफात-ए-पैहम = continuous mercy/favour; बदगुमानी = suspicion]
The Ghazal starts from here
तेरी बातें ही सुनाने आये
दोस्त भी दिल दुखाने आये
फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं
तेरे आने के ज़माने आये
ऐसी कुछ चुप सी लगी है जैसे
हम तुझे हाल सुनाने आये
इश्क तनहा है सर-ए-मंजिल-ए-गम
कौन ये बोझ उठाने आये
अजनबी दोस्त मुझे देख, की हम
कुछ तुझे याद दिलाने आये
अब तो रोने से भी दिल दुखता है
शायद अब होश ठिकाने आये
क्या कहीं फिर कोई बस्ती उजड़ी
लोग क्यूँ जस्न मनाने आये
सो रहो मौत के पहलु में 'फ़राज़'
नींद किस वक़्त न जाने आये
अहमद 'फ़राज़'
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