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Thursday, 25 September 2008

एक धुन्धल्की शाम

एक धुँधल्की शाम,
मद्धम मद्धम साँस,
बोझिल सर, धुआं धुआं,
और दो मुन्तजिर आँख

ऐ मजहर-ए-ग़ज़ल,

आज तुम आओगी ,
अपने साथ मशर्रत लाओगी ,
और इस तीरगी में अपना जमाल फैलाओगी

पर तुम नहीं आई,

तुम्हारा पैगाम आया,
आज भी नही आओगी यह कहलाया,

कल का वादा कर के मुझ को बहलाया

आज फिर वही धुँधल्की शाम,

मद्धम मद्धम साँस,
बोझिल सर, धुआं धुआं,
और दो बुझी सी आँख




ऐ मजहर-ए-ग़ज़ल,
पर कल तुम आना ,
अपने साथ मशर्रत लाना,

और इस तीरगी में अपना जमाल फैलाना




प्रशांत
[मुन्तजिर = awaiting, मजहर-ए-ग़ज़ल = manifestation of Gazal, मशर्रत = happiness,
तीरगी = darkness, जमाल = Beauty]

2 comments:

Pilot-Pooja said...

Great post again!

No wonder people ard you call you a great poet!

Prashant said...

Dear pooja, thanks a lot for your appreciation.
PD