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Wednesday 14 September 2011

Kab yaad mein tera saath nahin




कब याद में तेरा साथ नहीं, कब हाथ में तेरा हाथ नहीं
सद शुक्र की अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं

मैंदान-ए-वफ़ा दरबार नहीं, यां नाम-ओ-नसब की पूछ कहाँ
आशिक तो किसी का नाम नहीं, कुछ  इश्क किसी के ज़ात नहीं

जिस धज से कोई मकतल में गया वो शान सलामत रहती है
ये जान तो आनी जानी है इस जाँ की कोई बात नहीं

गर बाज़ी इश्क की बाज़ी है, जो चाहो  लगा दो, डर कैसा
गर जीत गए तो क्या कहना, हारे भी तो बाज़ी मात नहीं

मुश्किल है गर हालत वहां, दिल बेच आये, जान दे आये
दिलवालों कूचा-ए-जाना में में क्या ऐसे भी हालत नहीं

फैज़ अहमद 'फैज़'

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